विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका, ये लोकतंत्र के स्तंभ माने गए हैं। वैसे अघोषित रूप से चौथा स्तंभ पत्रकारिता को माना गया है । विधायिका का चयन देश के नागरिक चुनाव द्वारा करते हैं। वे अपने प्रतिनिधि चुनते हैं,जो आगे जाकर सरकार निर्मित कर , जनता की समस्त मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति का कार्य करते हुए , उनके अधिकारों को संरक्षित करते हैं। संविधान के मूल में जनता का हितरक्षण है, जो इन तीनों ही संस्थानों का उत्तरदायित्व है। देश के विधान में समय-समय पर जनहितार्थ संशोधन होते रहे हैं, जो एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्परा है। किंतु यदि सीमाओं का अतिक्रमण कर विधि निर्माण हो तो जनता की आपत्ति पर न्यायालय को हस्तक्षेप का अधिकार संविधान देता है।यह विधि ( कानून ) के गुण-दोषों पर विचार कर अपना मत प्रकट कर सकती है। संविधान विरूद्ध किए गए प्रविधानों को निरस्त अथवा शून्य करने का अधिकार रखती है। न्यायपालिका, विधायिका का निर्देशक नहीं बन सकती। दोनों के कार्यक्षेत्र संविधान में रेखांकित हैं। कार्यक्षेत्र के अतिक्रमण से टकराव की स्थिति का निर्माण होता है जिसे संबंधित पक्षों को बचना चाहिए। संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता और गरिमा आवश्यक है। कोई भी संस्था इतनी भी स्वतंत्र नहीं है कि वह आम नागरिकों के हित संवर्धन की सीमा लांघ सके । मूल में जनता ही सर्वोपरि है। विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका केवल जनता के लिए है।संविधान एक व्यवस्था मात्र है। इन सबका अस्तित्व केवल जनता में ही निहित है।अनेक देशों में तानाशाह बैठे हैं। वहाँ न तो विधायिका है और न ही न्यायपालिका । हमारे संविधान ने न्यायपालिका को कुछ विशेष अधिकार इसलिए दे रखे हैं , क्योंकि विधायिका निरंतर स्वरूप बदलने वाली संस्था है। इसमें समय-समय पर विभिन्न विचारधाराओं वाले दलों की सरकार बनती है। इनके कारण जनता के हितों का क्षरण न हो पाए। लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में समन्वय बना रहे, यह एक स्वस्थ एवं आदर्श लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। ये एक दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण किए बिना, एक दूसरे के प्रति आदर भाव रखें, यह भी आवश्यक है। ये तीनों ही संस्थाएँ संविधान से शक्ति पाती हैं। संविधान की उद्देशिका में, राष्ट्र राज्य की शक्ति का मूल स्रोत है -- " भारत की जनता ।" याने इन तीनों ही संस्थानों का मूल 'जनता' ही है। उद्देशिका में भारत के लोगों की सर्वोच्च प्रभुता की घोषणा है। तीनों ही संस्थाएँ जनता के प्रति उत्तरदायी हैं। और ये तीनों ही अपने उत्तरदायित्वों से मुँह नहीं मोड़ सकती। "उत्तरदायित्व " समान रूप से तीनों संस्थाओं पर भारित है। यहाँ पुन: स्मरण कराने की आवश्यकता है कि आपातकाल, विधायिका और न्यायपालिका का ' मानमर्दन ' काल था। जनता को जहाँ विधायिका से प्रश्न करने का अधिकार है,वहीं न्यायपालिका से भी है। अवमानना का भय दिखाकर न तो विधायिका और न ही न्यायपालिका, जनता के प्रश्न करने के अधिकार को निरस्त कर सकती है।स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यही उचित है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित है कि अनेक विसंगतियों के उपरांत भी आम जनता में न्यायपालिका के प्रति विशेष सम्मान है। अब यह न्यायपालिका का उत्तरदायित्व है कि वह इस सम्मान को स्थायित्व दे। न्याय आजकल मिलता नहीं, खरीदा जाता है, यह आम धारणा है। गरीब व्यक्ति तो न्यायालय की चौखट तक जाने में सक्षम नहीं है। वकीलों की भारी फीस, उसके बाद तारीख पर तारीख, न केवल उसे आर्थिक रूप से, मानसिक रूप से भी पूरी तरह तोड़ देती है। न्यायालयों में लंबित लाखों प्रकरण इसका प्रत्यक्ष व पुख्ता प्रमाण हैं। हाल ही में भारत सरकार ने कृषि संशोधन कानून बनाया। आपत्तिकर्ता न्यायालय पहुँच गए। आपत्ति लगाई गई कि इस कानून को बनाने में जनता का मत नहीं लिया गया। स्पष्ट रूप से हमारे संविधान में विधि निर्माण के लिए आम जनता से परामर्श का प्रावधान है ही नहीं। 'रेफेरेंडम' हमारे संविधान में नहीं है। न्यायालय ने स्पष्ट आदेश देने के स्थान पर एक समिति का निर्माण कर दिया। समिति का अभिमत आने के बाद भी निर्णय नहीं आया। क्यों ? जनता प्रश्न करती है। यह उसका मौलिक अधिकार है। न्याय में विलंब, अन्याय कहा जाता है। ऐसा ही सीएए के मामले में हुआ। न्याय अनुत्तरित क्यों ? जनता प्रश्न करती है। ऐसे ही एक जनहित याचिका के संदर्भ में दिल्ली में विशेष प्रकार के वाहनों पर लेवी लगाने के निर्देश दिए गए। कर लगाना न्यायालय का कार्यक्षेत्र नहीं है। वह सरकार को सुझाव दे सकता है, निर्देश नहीं। हर संवैधानिक संस्था का अपना कार्यक्षेत्र और उत्तरदायित्व है। सभी को अपनी मर्यादा परिधि में रहकर उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना होगा। हाँ, जनता सर्वोपरि है। किसी भी संस्था से प्रश्न करना उसका मौलिक अधिकार है। संस्थाएँ जनता से हैं, जनता संस्थाओं से नहीं। ------- -------- ------
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