भारत के सीनियर सिटीजन्स देश में सक्षम कानूनों के अभाव में निकटतम परिजनों द्वारा निरंतर प्रताड़ित किये जा रहे हैं। न ही केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें इस ओर ध्यान दे रही हैं। यहाँ की सरकारें उन्हीं मुद्दों पर ध्यान देती हैं जो उनके 'वोट बैंक ' को बढ़ाते हैं। चूँकि वृद्ध इस परिधि में नहीं आते, उपेक्षित हैं। वर्तमान कानून इतने ढुलमुल और अपूर्ण हैं कि वरिष्ठ नागरिकों को कहीं भी राहत नहीं मिल पा रही है, न्याय तो बहुत दूर की कौड़ी है। पुलिस थानों, सरकारी कार्यालयों, वकीलों और न्यायालयों के धक्के खाना ही उनकी नियति बन चुकी है। निष्कर्ष यह कि उनको अपना शेष जीवन त्रासदी भरा ही व्यतीत करना है। सहायता के लिए जतन एक व्यर्थ की कवायद है।
शीर्ष स्तर पर की गई शिकायत यहाँ के क्रमानुसार अंततः थाना स्तर पर ही आती है, समझा जा सकता है कि न्याय किस प्रकार मिलेगा। संपत्ति स्वअर्जित हो या पैतृक, निकट परिजनों द्वारा हथियाने के प्रयास निरंतर किये जा रहे हैं। इन प्रयासों में शारीरिक पीड़ा और मानसिक प्रताड़ना भी सम्मिलित हैं। शारीरिक प्रताड़ना सिद्ध की जा सकती है किंतु मानसिक प्रताड़ना को सिद्ध करना लगभग असंभव होता है और इसी कमजोरी का लाभ निकट परिजन उठाते हैं। वृद्धों की स्वयं के उपभोग की संपत्ति पर भी निकट परिजन कानूनों की अस्पष्टता के कारण आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं। याने वृद्ध अपनी अथवा पैतृक संपत्ति का उपभोग करने से षड़यंत्रपूर्वक वंचित कर दिया जाता है। इस प्रकार 3 री और 4 थी पीढ़ी, 2 री पीढ़ी को क्रमिक रूप से मिली संपत्ति पर जो कि उसके उपयोग-उपभोग की होकर, आय का साधन अथवा अतिरिक्त आय का साधन हो, बलपूर्वक, षड़यंत्रपूर्वक अधिकार कर ले, भारत के कानून अस्पष्ट, भ्रामक एवं पेचीदगियों से भरे पड़े हैं।
भारत के अनेक राज्यों में ' जनसुनवाई ' नामक व्यवस्था चलन में आई है। परिणाम बताते हैं कि यह व्यवस्था राहत कम और आंकड़े अधिक प्रस्तुत करती है। कुल मिलाकर यह एक अपूर्ण और ढकोसला व्यवस्था है। इसके अंतर्गत काउंसलिंग ( समझाइश) भी एक भाग है। इसकी विडंबना देखिए। सीनियर सिटीजन्स जिन्हें जीवन का लंबा अनुभव रहा है, उनको कम आयुवाले समझाइश देते हैं? जिन्हें सीनियर सिटीजन्स से सीख लेना चाहिए , वे सीख देते हैं।
सीनियर सिटीजन्स के लिए कोई न्यायोचित फोरम अथवा प्लेटफार्म नहीं है, जहाँ वे अपनी व्यथा व्यक्त कर सकें।
कानून वही पूर्ण एवं सार्थक सिद्ध हो सकता है जो समय पर राहत और न्याय प्रदान कर सके। वर्तमान भारतीय कानून इस कसौटी पर खरे नहीं हैं।